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अग्ने॑ या॒हि सु॑श॒स्तिभि॑र्ह॒व्या जुह्वा॑न आनु॒षक् । यथा॑ दू॒तो ब॒भूथ॑ हव्य॒वाह॑नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne yāhi suśastibhir havyā juhvāna ānuṣak | yathā dūto babhūtha havyavāhanaḥ ||

पद पाठ

अग्ने॑ । या॒हि । सु॒श॒स्तिऽभिः॑ । ह॒व्या । जुह्वा॑नः । आ॒नु॒षक् । यथा॑ । दू॒तः । ब॒भूथ॑ । ह॒व्य॒ऽवाह॑नः ॥ ८.२३.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:23» मन्त्र:6 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

उसकी स्तुति दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे सर्वाधार ! (आनुषक्) तू मानो आसक्त होकर (हव्या+जुहानः) हव्य पदार्थों को स्वयं होमता हुआ (प्रशस्तिभिः) नाना स्तुतियों के साथ (याहि) स्तुतिपाठकों के गृह पर जा। हे ईश ! (यथा) जैसे हम लोगों का तू (हव्यवाहनः) हव्य पदार्थों को वहन करनेवाला है। (दूतः+बभूथ) वैसे तू हम लोगों का दूत भी है। अर्थात् तू अपनी आज्ञाओं को दूत के समान हम लोगों से अन्तःकरण में कहता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - दूत=ईश्वर दूत इसलिये है कि वह अपना सन्देशा हम लोगों के निकट पहुँचाता है और हव्यवाहन इसलिये है कि उसी का यह महान् प्रबन्ध है कि वस्तु एक स्थान से दूसरे स्थान में जाती रहती है ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे संग्रामवेत्ता विद्वान् ! आप (यथा) जो (हव्यवाहनः, दूतः, बभूथ) प्रजाओं से राजभाग आहरण करने के लिये सम्राट् के दूत सदृश हैं, इसलिये (सुशस्तिभिः) शोभन प्रार्थनाओं से (हव्या, जुह्वानः) प्रजाओं को हव्यपदार्थ प्रदान करते हुए (आनुषक्, याहि) सबकी रक्षा करते हुए भ्रमण करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - भाव यह है कि संग्रामवेत्ता विद्वान् सम्राट् के दूतसदृश होते हैं, जो प्रजाओं से राजभाग लेते हैं, या यों कहो कि जिस प्रकार शिक्षा, कल्प तथा व्याकरणादि वेद के अङ्ग हैं, इसी प्रकार परा अपरा विद्यावेत्ता विद्वान् सम्राट् के अङ्ग कहलाते हैं, इसलिये सम्राट् को उचित है कि उक्त विद्वान् उत्पन्न करके सुरीति तथा सुनीति का प्रचार करे, ताकि प्रजा में सुव्यवस्था उत्पन्न होकर प्रजागण सदैव धर्मपरायण हों और वे विद्वान् सब प्रजाओं की रक्षा करते हुए राजभाग को ग्रहण करें ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

तस्य स्तुतिं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने=सर्वाधार ! आनुषग्=आनुषक्तं यथा भवति तथा। हव्या=हव्यानि। जुह्वानः=स्वयमेव। जुह्वत्। प्रशस्तिभिः=स्तोत्रैः सह। याहि। हे ईश ! यथास्माकं त्वं हव्यवाहनः। तथा दूतोऽपि। बभूथ ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे संग्रामवेत्तः ! त्वम् (यथा) यतः (हव्यवाहनः, दूतः, बभूथ) प्रजाभ्यो भागधेयाहरणाय सम्राजो दूतो भवति अतः (सुशस्तिभिः) प्रजानां शोभनस्तुतिभिः (हव्या, जुह्वानः) हव्यानि प्रयच्छन् (याहि, आनुषक्) अनुषक्तः सन् याहि ॥६॥